Friday, January 13, 2023

शुतुरमुर्ग का शासन


इक संस्थान निराला जिस में नगरी एक बसायी थी। 

उदयभानु के वर्णिम जैसी शोणित इष्टि सजायी थी। 

सुन्दरता जिसकी दर्शन करने परदेसी आते थे। 
लाल-हरित की क्रीड़ाओं में मन्त्र मुग्ध हो जाते थे। 

इस शोभा के उदर में पर दुःख के सङ्केत उजागर थे। 
चण्डवात से घिरी हो लहरें आकुलता के सागर में। 

जन्तु जन्तु को काट रहा भीकर परिवेश विराट रहा।
त्राहि त्राहि कर प्रजा परन्तु सुप्त मूक सम्राट रहा। 

होता था जलपात धरा पर जब श्रावण के मेघों का,
अश्रुधार में बह जाता था वाहन सबके सपनों का। 

निद्रा ने तज दिया सभी का साथ शान्ति ने छोड़ दिया। 
शोर धूम रज कल्मषजल ने बांध स्वास्थ्य का तोड़ दिया। 

नियम हुए विस्मरित अराजकता का रूप हुआ गम्भीर। 
जिसको भेद नहीं कर पाया कोई अनुशासन का तीर। 

व्याकुलता सन्ताप दृश्य हर ओर दिखाई दे जाता।
शोक वेदना का ऊंचा चीत्कार सुनाई दे जाता। 

कोलाहल की ज्वाला का उस नगरी को आलिङ्गन था   
पर भूमि में शीर्ष गढ़ाये बैठा उसका राजन था।