कुछ इस तरह लड़ते रहे हम उम्र से,
अब ज़ोर लगाने की भी ताक़त न रही।
छूटता रहा जो मेरे हाथ में था,
उसे पकड़ पाने की भी चाहत न रही।
खुश होकर जीने की भी आदत न रही।
किस से मात खाते किस्मत के मारे,
किस्मत बदल जाने की भी किस्मत न रही।
थक गया चढ़कर नाकामी की चोटी,
अब कुछ कर जाने की भी हसरत न रही।
अब कुछ कर जाने की भी हसरत न रही।