पढ़ते भी रहे हम लिखते भी रहे,
हंसे तो कभी सिसकते भी रहे,
कभी लगाते मोल बने खरीददार,
कभी बाज़ार में बिकते भी रहें।
कभी देखा वादी–पहाड़ों को,
देखा सुलगती गर्मी और जाड़ों को,
कभी ठहर के देखा समन्दर की तरह,
कभी चञ्चल नदी से बहते रहें।
कभी बांधा शब्दों को रागों में,
कभी खिलाया फूलों को बागों में,
सङ्गीत साज़ों में सजाते कहीं,
तो कभी गीतों पर हम थिरकते रहें।
कोई कह गया..
कि जो यूं ज़िन्दगी बिताओगे,
ज़िन्दगी क्या है जान पाओगे,
कि जीवन का मतलब हमें,
आ जायेगा समझ सब हमें।
पर कुछ कमी शायद हम में ही थी,
कि हम जितने बने उतने बिखरते रहें।
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