प्राचीन किसी काल की,
किसी बीते साल की,
एक कथा पुरानी है,
जो सबको सुनानी है।
एक घने जंगल में,
समय बिताते कौतूहल में,
प्राणियों पर संकट आया,
अकाल का समय विकट आया।
सूखे सारे नदी ताल,
सूखे सारे वृक्ष विशाल,
तृण घास भी हुई विरल,
पड़े जन्तु सारे शिथिल।
व्याकुलता में सब पड़े,
घोर चिन्तन में खड़े,
कैसे बचें इस दुविधा से,
मुक्ति पाएं इस क्षुधा से।
तभी बन्दर एक चिल्लाया,
सर्वसम्बोधन कर बतलाया,
तुम्हारे दुःखों का जो कारण है,
उसका एक ही निवारण है।
उठा फेंको उसको सिंहासन से,
पीड़ित हो जिसके शासन से,
असमर्थ अक्षम है वो,
आलस में क्या कम है वो।
बैठा बैठा गुर्राता है,
मुफ़्त की रोटी खाता है,
मूढ़ है वह न विचलित है,
अपना मरना तो निश्चित है।
है समय यही आन्दोलन का,
आधारभूत परिवर्तन का,
एक नए राजन का करो चयन,
जनसेवा में जिसकी लगन।
जो स्फूर्ति से हो भरा,
विचरता वृक्ष हो या धरा,
जो लंबी दूरी हो लांघता,
मैं बस इतना ही माँगता।
मेरी बात से यदि हो सहमत,
दे दो मुझको अपना मत,
अपनी क़िस्मत चमकाओगे,
दिन रात पेट भर खाओगे।
किसी बीते साल की,
एक कथा पुरानी है,
जो सबको सुनानी है।
एक घने जंगल में,
समय बिताते कौतूहल में,
प्राणियों पर संकट आया,
अकाल का समय विकट आया।
सूखे सारे नदी ताल,
सूखे सारे वृक्ष विशाल,
तृण घास भी हुई विरल,
पड़े जन्तु सारे शिथिल।
व्याकुलता में सब पड़े,
घोर चिन्तन में खड़े,
कैसे बचें इस दुविधा से,
मुक्ति पाएं इस क्षुधा से।
तभी बन्दर एक चिल्लाया,
सर्वसम्बोधन कर बतलाया,
तुम्हारे दुःखों का जो कारण है,
उसका एक ही निवारण है।
उठा फेंको उसको सिंहासन से,
पीड़ित हो जिसके शासन से,
असमर्थ अक्षम है वो,
आलस में क्या कम है वो।
बैठा बैठा गुर्राता है,
मुफ़्त की रोटी खाता है,
मूढ़ है वह न विचलित है,
अपना मरना तो निश्चित है।
है समय यही आन्दोलन का,
आधारभूत परिवर्तन का,
एक नए राजन का करो चयन,
जनसेवा में जिसकी लगन।
जो स्फूर्ति से हो भरा,
विचरता वृक्ष हो या धरा,
जो लंबी दूरी हो लांघता,
मैं बस इतना ही माँगता।
मेरी बात से यदि हो सहमत,
दे दो मुझको अपना मत,
अपनी क़िस्मत चमकाओगे,
दिन रात पेट भर खाओगे।
प्रत्येक प्रजाति पाए आहार
उनकी संख्या के अनुसार
भोजन रहे पर्याप्त सदा,
मिट जाएगी यह आपदा।
दुःखों का मैं करूँगा नाश,
इतना दिलाता हूं विश्वास,
इतना दिलाता हूं विश्वास,
सबको मैं न्याय दिलाऊंगा,
अच्छे दिन वापस लाऊंगा।
दुःख के बोझ में जो था दबा,
उसको उम्मीद की एक किरण,
था मर्कट का वह भाषण।
हाँ। यही सही होता प्रतीत,
कब तक करें ऐसे व्यतीत,
जीवन ये दुखदायी इतना,
कष्ट भरा हैं इसमें कितना।
बन्दर ये कहता सत्य है,
इसकी बातों में तथ्य है,
इस सिंह से अब कुछ नहीं होगा,
इसने है सुख सिर्फ़ भोगा।
हम इसको सबक सिखायेंगे,
ऐसी धूल चटायेंगे,
इतना अद्भुत होगा पतन,
वर्षों वर्षों होगा स्मरण।
और फिर हुआ तख़्ता पलट,
बन्दर राजा बना झटपट,
अब दुःख मेघ छँट जायेंगे,
दिन सन्तोष में कट जाएँगे।
और ऐसे ही दिन कुछ बीत गए,
प्राणी सारे भयभीत हुए,
बन्दर की कोई खबर नहीं,
दुर्दशा वही, कोई अन्तर नहीं,
कुछ नहीं हुआ कोई सुधार,
भीषण अकाल की पड़ती मार।
बन्दर कुछ तो करता होगा,
यह दृश्य उसको भी अखरता होगा,
उसने था दिया आश्वासन,
इसलिए चुना था उसको राजन।
चलो उससे हम आयें मिल,
वो भी जाने अपनी मुश्किल,
ऐसा कह सब मिलकर चले,
उस कपि राजा के घर चले।
वट का तरु था एक महान,
सम्मुख उसके विराजमान,
इक खाट पर पड़ा सुप्त था,
स्वप्नलोक में लुप्त था।
बन्दर को देख अचरज हुआ,
प्रजा को क्रोध सहज हुआ,
बातें करी थी लम्बी चौड़ी,
करोगे तुम भागा दौड़ी,
रह चुस्त सदा होगे तत्पर,
अब सोते पड़े हो खाट पर।
यह सुन वानर अब हुआ खड़ा,
और तुरन्त वटवृक्ष पर चढ़ा,
दो पल पश्चात् नीचे उतर,
चढ़ बैठा फिर से वह तरु पर।
ऐसा ही वक़्त गुज़रता रहा,
चढ़ता वह फिर उतरता रहा,
रुकने का लिया नहीं नाम,
ऐसे ही सुबह हो गई शाम।
एक हिरण का धीरज टूटा,
सब्र क्रोध बन कर फूटा,
राजा यह आप क्या कर रहे,
बस पेड़ पर चढ़ उतर रहे।
चढ़ते चढ़ते मर्कट थमा,
टहनी पर वह आ कर जमा,
आँखों को फाड़ कर गुर्राया,
खीजते हुए वह चिल्लाया।
कैसे कृतघ्न प्राणी हो तुम,
निर्लज्ज विद्रोह वाणी हो तुम,
अच्छे बुरे की पहचान नहीं,
नृप का करते सम्मान नहीं।
अविश्वास से करते सवाल,
तुमको न दिखता मेरा हाल,
क्या तुम्हें सिंह ने भड़काया,
उसने क्या तुम्हें यहाँ भिजवाया।
करते हो वाद वितण्ड तुम,
क्या चाहते मृत्युदण्ड तुम,
यदि होता न अब वानर का राज,
भक्ष हो जाते तुम आज।
लोक कल्याण में सदा तत्पर,
सुबह से शाम तक निरन्तर,
लगातार काम मैं कर रहा हूं,
देखो, मैं इस पेड़ पर चढ़ कर उतर रहा हूँ।
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