Friday, February 14, 2025

14 फरवरी


अब क्या कहें किस मुसीबत में हम हैं,
खुशियों के मौसम में कैसा ये ग़म है। 
अचानक समय ने बदली जो करवट,
तबाही की देती सुनाई है आहट।

सुबह आज वैसे ही थी जैसे कल थी,
सुकूं देती वो सर्दियों की ग़ज़ल थी। 

न सूझा हमें चाय पी जब रहे थे,
इतने सयाने अजी कब रहे थे। 
वो बैठी थी उम्मीद से मुझको ताके,
कभी वो इधर तो उधर थी वो झांके। 

लगा हमको शायद कि कुछ खो चुका है,
ऐसा तो पहले बहुत हो चुका है,
यही सोच कर बात मैंने बदल दी,
जाना है दफ़्तर मुझे आज जल्दी। 

कुर्सी से जैसे उठी वो उखड़ के,
हम सोचें कुछ तो हुआ आज तड़के,
अब तो इसी में है मेरी भलाई,
चुपचाप दफ़्तर निकल जाओ भाई। 

हमें बात तब भी समझ में न आयी,
टिफ़िन बॉक्स में देखी जब इक मिठाई,
पसंदीदा सब्ज़ी, पराठे वो सारे,
हजम कर के मारे थे जब हम डकारें। 
समझ काश पाते नज़ाकत वो पल के, 
ताले ही खुल जाते मेरी अकल के। 

हुई शाम लौटा मैं जो अपने घर पे,
खड़ी थी वो हाथों को रख के कमर पे,
गुस्से से आँखों में छायी थी लाली,
साक्षात दुर्गा भवानी मां काली।

उसी पल अकल के घोड़े दौड़ाये,
कहाँ क्या मैं भूला मुझे याद आये,
तभी याद आयी हमें उस घडी की,
चौदह की तारीख थी फरवरी की। 

हमें सांप सूंघा उड़ा रंग मुख का,
उस बेवक़ूफ़ी का मुझको जो दुःख था,
उसको मगर मान कैसे मैं लेता?
खुद अपनी ही जान कैसे मैं लेता?

मर्दानगी ने मेरी मुझको झाड़ा,
मैंने भी ऊंची ध्वनि में दहाड़ा,
मालूम है मुझको भूला नहीं हूँ,
यूं ही मैं आग बबूला नहीं हूँ,
कल्चर ये अपना नहीं है पराया,
दिन आजतक ये न मैंने मनाया,
फुर्सत नहीं मुझको इस मसखरी की,
चौदह की तारीख ये फ़रवरी की। 

कुछ न कही वो मेरे पास आयी,
कानों में आकर मेरे फुसफुसाई,
तुम्हारी ये बातों को स्वीकारती हूँ ,
फिरंगी ये कल्चर पे धिक्कारती हूँ। 
कहूँ सच तो मुझको नहीं कुछ पड़ी जी,
चौदह या सोलह या छह फरवरी की।   

मगर खोल कानों को सुन लो ओ प्यारे,
कभी पास चाहो जो आना हमारे,
गर प्यार हमसे तुम्हारा ये सच्चा,
ला दोगे तोहफ़ा हमें आज अच्छा। 
नहीं तो ये वादा है तुमसे हमारा,
सोफ़ा ही बिस्तर बनेगा तुम्हारा,
शुरुआत हो जाएगी इस कड़ी की,
चौदह की तारीख़ से फ़रवरी की।  

सुन कर ज़रा ये सहम सा गया मैं,
मर्दानी राहों में थम सा गया मैं,
उसकी निगाहों में डर था न कोई,
गुस्से का मेरे असर था न कोई। 

रहा हूँ भटक इसलिए सारी गलियां,
अनजान काली ये अंधियारी गलियां,
मिल जाए मुझको फूलों का दस्ता,
छोटा बड़ा ही महंगा या सस्ता। 

अब तो ये लगता कठिन भूल पाऊं,
अपना भले जनमदिन भूल जाऊं,
भूलूं न अब सीख ये फ़रवरी की, 
चौदह की तारीख ये फ़रवरी की।

Sunday, February 02, 2025

संपर्क

 क्या सुनाऊं अपना हाल,

फंसा हुआ मैं किस जंजाल,
कैसे कर लूं बात किसी से,
ऐसा मुश्किल बना सवाल । 

पहले बुलवा लाते थे,
खाते थे खिलाते थे,
घंटों-घंटों बैठ सामने 
गप्पे खूब लड़ाते थे। 

टेलिफोन फिर घर आया,
इक ऐसा मंज़र आया,
अब जाते हम नहीं कहीं पे,
ना कोई भी घर आया। 

दूर दूर से करते बात,
ऐसे होते अब हालात,
वाणी ही पहचान रह गयी,
शक़्ल न आती अब तो याद। 

फिर आया मोबाइल फ़ोन,
एस एम एस की बजती टोन,
अब वाणी की कहाँ ज़रुरत,
ख़बर भेजते रहकर मौन। 

इंटरनेट आया झटपट,
मैसेंजर फिर हुआ प्रकट,
अपनों अजनबियों का अंतर,
धीरे धीरे जाता घट। 

कौन मित्र है कौन अरी,
किसको क्या है किसे पड़ी,
आज यही कल वही बदलता,
मित्र यहाँ पर घड़ी-घड़ी। 

व्हाटसैप का हुआ जनम,
मुसीबतें न होती कम,
सामूहिक सन्देश भेजते,
एक साथ ही सबको हम। 

जब कोई उमड़ा विचार,
महत्वपूर्ण सा समाचार,
उठा फ़ोन कर डाला हमने,
उसी क्षण सर्वत्र प्रचार।  

और लगे है हमें बुरा,
ध्यान अगर दे नहीं ज़रा,
बेगैरत कम्बख्तों से अब,
ग्रुप मेरा है पड़ा भरा। 

कहां गए वो दोस्त सभी,
साथ खेल-कूदते कभी,
आज नाम भी याद न होता,
कब हो गए सब अजनबी। 

अब सब कुछ है मेरे पास,
फिर भी रहता हूँ उदास,
जाने क्यों इस भीड़ में मुझे,
तन्हाई होती एहसास।