क्या सुनाऊं अपना हाल,
फंसा हुआ मैं किस जंजाल,
कैसे कर लूं बात किसी से,
ऐसा मुश्किल बना सवाल ।
पहले बुलवा लाते थे,
खाते थे खिलाते थे,
घंटों-घंटों बैठ सामने
गप्पे खूब लड़ाते थे।
टेलिफोन फिर घर आया,
इक ऐसा मंज़र आया,
अब जाते हम नहीं कहीं पे,
ना कोई भी घर आया।
दूर दूर से करते बात,
ऐसे होते अब हालात,
वाणी ही पहचान रह गयी,
शक़्ल न आती अब तो याद।
फिर आया मोबाइल फ़ोन,
एस एम एस की बजती टोन,
अब वाणी की कहाँ ज़रुरत,
ख़बर भेजते रहकर मौन।
इंटरनेट आया झटपट,
मैसेंजर फिर हुआ प्रकट,
अपनों अजनबियों का अंतर,
धीरे धीरे जाता घट।
कौन मित्र है कौन अरी,
किसको क्या है किसे पड़ी,
आज यही कल वही बदलता,
मित्र यहाँ पर घड़ी-घड़ी।
व्हाटसैप का हुआ जनम,
मुसीबतें न होती कम,
सामूहिक सन्देश भेजते,
एक साथ ही सबको हम।
जब कोई उमड़ा विचार,
महत्वपूर्ण सा समाचार,
उठा फ़ोन कर डाला हमने,
उसी क्षण सर्वत्र प्रचार।
और लगे है हमें बुरा,
ध्यान अगर दे नहीं ज़रा,
बेगैरत कम्बख्तों से अब,
ग्रुप मेरा है पड़ा भरा।
कहां गए वो दोस्त सभी,
साथ खेल-कूदते कभी,
आज नाम भी याद न होता,
कब हो गए सब अजनबी।
अब सब कुछ है मेरे पास,
फिर भी रहता हूँ उदास,
जाने क्यों इस भीड़ में मुझे,
तन्हाई होती एहसास।
No comments:
Post a Comment