Wednesday, November 19, 2025

इस शहर को क्या हो गया है?


इस शहर को क्या हो गया है?
हर तरफ बस एक धुंआ सा है दीखता। 

ये कैसी निराशा, ये कैसा अँधेरा?
ये कैसे दुःखों की घटाओं ने घेरा?
सुनो हर एक कण को, जो है चीखता।  
इस शहर को क्या हो गया है?
हर तरफ बस एक धुंआ सा है दीखता। 

कभी ये भी फूल और गुल से सजा था, 
बाग-ओ-बगीचों की हंसी से भरा था,
पत्ता भी खांसे कहीं कोई छींकता। 
इस शहर को क्या हो गया है?
हर तरफ बस एक धुंआ सा है दीखता। 

खिले धूप सर्दी में हमने सुना था,
नीला वो आकाश हमने सुना था,
अचरज है ऐसा भी वक़्त कोई ठीक था। 
इस शहर को क्या हो गया है?
हर तरफ बस एक धुंआ सा है दीखता। 

Sunday, July 27, 2025

बोली बनाम धर्म


आया वो करने व्यापार,
पालन को अपना परिवार,
थोड़े पैसों से करने को
अपने प्रियजन का उद्धार। 

कश्मल सूकर-टोल रहा,
पूति वायु में घोल रहा,   
वही शत्रु है क्योंकि वह न 
मेरी बोली बोल रहा।  

आंखों में है खून सवार, 
होठों पर गूंजी ललकार, 
हरने मेरे प्राण आ रहा 
हाथों में लेकर हथियार। 

गुस्से में वह डोल रहा,
गुनाह मेरे तोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा। 

विनय सरल वो करे नमन,
हाथ जोड़ कर अभिनन्दन,
आशा की मुस्कान होंठ पर,
कर व्यतीत अपना जीवन। 

भर्त्सन भरा कपोल रहा, 
आहत मुख बेडौल रहा,
वही शत्रु है क्योंकि वह न 
मेरी बोली बोल रहा।  

कर अभीत वह चीर हरण, 
पत्नी हो या मात बहन,
नहर, फ्रीज, पेटी में फेंके,
या भूमि में करे दफ़न। 

मान के धागे खोल रहा,
गरिमा का न मोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा। 

पूजा प्रेम सहित करता,
भक्ति पुष्प अर्पित करता,
मेरे इष्ट देव गुरुजन को 
निष्ठा से भूषित करता।

क्या अनर्थ माहौल रहा,
वो और मैं सम तोल रहा?
वही शत्रु है क्योंकि वह न 
मेरी बोली बोल रहा।  

विग्रह को खण्डित करता,
भक्ति भाव व्यथित करता,
मल से अपने या मूत्र से,
पूजास्थल दूषित करता।

धीरज को टटोल रहा,
श्रद्धा डावाडोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा। 


पाई पाई है कमा रहा,
पूंजी धन को जमा रहा,
बूंद-बूंद सींचे सपनों को,
खून-पसीना बहा रहा।   

इतना लोभी लोल रहा,
लालच का कल्लोल रहा,
वही शत्रु है क्योंकि वह न 
मेरी बोली बोल रहा।  

हुए प्रताडित सब दौड़े,
गांव गली घर सब छोड़े,
देख नाच उन्माद में उनको,
जिसने देवालय तोड़े। 

छूटा सब अनमोल रहा,
हाथों में कशकोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा। 

कर डालूंगा आज दमन,
उस दुर्जन का वंश पतन,
निज भाषी जो नहीं वो पापी, 
होगा उसका आज हनन। 

उड़ता आज मखौल रहा,
क्या उसका अब मोल रहा,
ख़त्म हुआ द्रोही जो था न 
मेरी बोली बोल रहा।  

रक्तरञ्जित आज पड़ा,
मिट्टी में अब हुआ गढ़ा,
शिशु बान्धव परिजन अब सारे,
उसी मित्र को बलि चढ़ा।
 
भू सम्बन्ध अमोल रहा,  
इसी मृदा में घोल रहा,
अब क्या पड़ता फ़र्क मुझे वो 
मेरी बोली बोल रहा।

Monday, March 24, 2025

मोबाइल युग

ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

जहां भी मैं देखूं यही है नज़ारा,
बच्चा जवां या बुढ़ापे का मारा,
आते हैं जाते कोई सुध कहां है,
मदहोश ऐसे सभी अब यहां हैं,
दुनिया को अपनी भुलाए खड़ा है।
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

उंगली से अपनी है करता इशारे,
ऐसे समय अपना सारा ग़ुज़ारे,
कहीं कोई टिन–टिन कहीं कोई टन–टन,
घड़ी दो घड़ी ढूंढता मनोरंजन,
मिथ्या में खुद को छुपाए खड़ा है।
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

बेड़ी नहीं है नहीं कोई बंधन,
फिर किस गुलामी में जीता है जीवन,
खुशी कोई उसको तो मिलती नहीं है,
कोई वेदना भी संभलती नहीं है,
नशे में ये खुद को डुबाए खड़ा है।
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

संभावना अनगिनत हाथ में है,
मौका ये विज्ञान का हाथ में है,
चाहे तो पा ले वो संसार सारा,
मन का मिटा दे वो अंधेर सारा,
मौका ये फिर क्यों गंवाए खड़ा है?
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

अपनों से बातों की फ़ुरसत नहीं है,
इक दूसरे की ज़रूरत नहीं है,
मिटा डालने को अपनी निशानी,
खुद की तबाही की लिखने कहानी,
तरकीब क्यों ये बनाए खड़ा है?
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

Friday, February 14, 2025

14 फरवरी


अब क्या कहें किस मुसीबत में हम हैं,
खुशियों के मौसम में कैसा ये ग़म है। 
अचानक समय ने बदली जो करवट,
तबाही की देती सुनाई है आहट।

सुबह आज वैसे ही थी जैसे कल थी,
सुकूं देती वो सर्दियों की ग़ज़ल थी। 

न सूझा हमें चाय पी जब रहे थे,
इतने सयाने अजी कब रहे थे। 
वो बैठी थी उम्मीद से मुझको ताके,
कभी वो इधर तो उधर थी वो झांके। 

लगा हमको शायद कि कुछ खो चुका है,
ऐसा तो पहले बहुत हो चुका है,
यही सोच कर बात मैंने बदल दी,
जाना है दफ़्तर मुझे आज जल्दी। 

कुर्सी से जैसे उठी वो उखड़ के,
हम सोचें कुछ तो हुआ आज तड़के,
अब तो इसी में है मेरी भलाई,
चुपचाप दफ़्तर निकल जाओ भाई। 

हमें बात तब भी समझ में न आयी,
टिफ़िन बॉक्स में देखी जब इक मिठाई,
पसंदीदा सब्ज़ी, पराठे वो सारे,
हजम कर के मारे थे जब हम डकारें। 
समझ काश पाते नज़ाकत वो पल के, 
ताले ही खुल जाते मेरी अकल के। 

हुई शाम लौटा मैं जो अपने घर पे,
खड़ी थी वो हाथों को रख के कमर पे,
गुस्से से आँखों में छायी थी लाली,
साक्षात दुर्गा भवानी मां काली।

उसी पल अकल के घोड़े दौड़ाये,
कहाँ क्या मैं भूला मुझे याद आये,
तभी याद आयी हमें उस घडी की,
चौदह की तारीख थी फरवरी की। 

हमें सांप सूंघा उड़ा रंग मुख का,
उस बेवक़ूफ़ी का मुझको जो दुःख था,
उसको मगर मान कैसे मैं लेता?
खुद अपनी ही जान कैसे मैं लेता?

मर्दानगी ने मेरी मुझको झाड़ा,
मैंने भी ऊंची ध्वनि में दहाड़ा,
मालूम है मुझको भूला नहीं हूँ,
यूं ही मैं आग बबूला नहीं हूँ,
कल्चर ये अपना नहीं है पराया,
दिन आजतक ये न मैंने मनाया,
फुर्सत नहीं मुझको इस मसखरी की,
चौदह की तारीख ये फ़रवरी की। 

कुछ न कही वो मेरे पास आयी,
कानों में आकर मेरे फुसफुसाई,
तुम्हारी ये बातों को स्वीकारती हूँ ,
फिरंगी ये कल्चर पे धिक्कारती हूँ। 
कहूँ सच तो मुझको नहीं कुछ पड़ी जी,
चौदह या सोलह या छह फरवरी की।   

मगर खोल कानों को सुन लो ओ प्यारे,
कभी पास चाहो जो आना हमारे,
गर प्यार हमसे तुम्हारा ये सच्चा,
ला दोगे तोहफ़ा हमें आज अच्छा। 
नहीं तो ये वादा है तुमसे हमारा,
सोफ़ा ही बिस्तर बनेगा तुम्हारा,
शुरुआत हो जाएगी इस कड़ी की,
चौदह की तारीख़ से फ़रवरी की।  

सुन कर ज़रा ये सहम सा गया मैं,
मर्दानी राहों में थम सा गया मैं,
उसकी निगाहों में डर था न कोई,
गुस्से का मेरे असर था न कोई। 

रहा हूँ भटक इसलिए सारी गलियां,
अनजान काली ये अंधियारी गलियां,
मिल जाए मुझको फूलों का दस्ता,
छोटा बड़ा ही महंगा या सस्ता। 

अब तो ये लगता कठिन भूल पाऊं,
अपना भले जनमदिन भूल जाऊं,
भूलूं न अब सीख ये फ़रवरी की, 
चौदह की तारीख ये फ़रवरी की।

Sunday, February 02, 2025

संपर्क

 क्या सुनाऊं अपना हाल,

फंसा हुआ मैं किस जंजाल,
कैसे कर लूं बात किसी से,
ऐसा मुश्किल बना सवाल । 

पहले बुलवा लाते थे,
खाते थे खिलाते थे,
घंटों-घंटों बैठ सामने 
गप्पे खूब लड़ाते थे। 

टेलिफोन फिर घर आया,
इक ऐसा मंज़र आया,
अब जाते हम नहीं कहीं पे,
ना कोई भी घर आया। 

दूर दूर से करते बात,
ऐसे होते अब हालात,
वाणी ही पहचान रह गयी,
शक़्ल न आती अब तो याद। 

फिर आया मोबाइल फ़ोन,
एस एम एस की बजती टोन,
अब वाणी की कहाँ ज़रुरत,
ख़बर भेजते रहकर मौन। 

इंटरनेट आया झटपट,
मैसेंजर फिर हुआ प्रकट,
अपनों अजनबियों का अंतर,
धीरे धीरे जाता घट। 

कौन मित्र है कौन अरी,
किसको क्या है किसे पड़ी,
आज यही कल वही बदलता,
मित्र यहाँ पर घड़ी-घड़ी। 

व्हाटसैप का हुआ जनम,
मुसीबतें न होती कम,
सामूहिक सन्देश भेजते,
एक साथ ही सबको हम। 

जब कोई उमड़ा विचार,
महत्वपूर्ण सा समाचार,
उठा फ़ोन कर डाला हमने,
उसी क्षण सर्वत्र प्रचार।  

और लगे है हमें बुरा,
ध्यान अगर दे नहीं ज़रा,
बेगैरत कम्बख्तों से अब,
ग्रुप मेरा है पड़ा भरा। 

कहां गए वो दोस्त सभी,
साथ खेल-कूदते कभी,
आज नाम भी याद न होता,
कब हो गए सब अजनबी। 

अब सब कुछ है मेरे पास,
फिर भी रहता हूँ उदास,
जाने क्यों इस भीड़ में मुझे,
तन्हाई होती एहसास।

Friday, January 03, 2025

मैनेजमेंट

एक अचानक दिन यूं मेरी, 
भेंट हुई एक सज्जन से,
बोले करनी बात आप से
सोचा था बहुत दिन से।

करते क्या हो आप काम जी,
क्या ही आप पढ़ाते हो? 
सच्चाई की दाल में श्रीमन 
कितना झूठ मिलाते हो।  

मैनेजमेंट विज्ञान नाम से 
ना बनता विज्ञान कोई,
ऐसे गोरखधंधे से अब 
ना रहता अनजान कोई। 

इसमें क्या कठिनाई है यह 
क्रय-विक्रय का है खेला,
सभी निपुण है इस क्रीड़ा में 
बड़ी कम्पनी या ठेला। 

कौशल का भी काम नहीं,
सभी भाग्य पर निर्भर है। 
फिर समझाएं हमें आपकी 
आवश्यकता क्योंकर है?

यदि होता विज्ञान विषय यह 
इसमें विजय निहित होता,
बिन बाधा अवरोध सफलता 
सदा सर्व निश्चित होता। 

नहीं उन्नति मार्ग दिखाते 
न भविष्य का अनावरण।
जो बीता उसको समझाने 
क्या लाभ होगा श्रीमन? 

सच तो है असमर्थ आप हैं 
देने कोई आश्वासन,
अनुपयुक्त है व्यर्थ निरर्थक 
लगे आपके सब प्रवचन। 

सुनी जब गर्जना सज्जन की 
सहम गया मैं तो क्षण भर,
ज्ञानव्योम पर उड़ता सपना 
सहसा बिखर गया गिर कर। 

पर समेट टुकड़े सपनों के 
मैंने फिर आकार दिया,
उस आलोचक की बातों पर,
थोड़ा गहन विचार किया। 

वस्तु नहीं विज्ञान, महोदय,
ग्रहण इसे कर ना सकते,
निर्विराम प्रक्रिया है यह तो,
चले निरन्तर ना थकते। 

अवलोकन निसर्ग का है यह 
सच्चाई का अन्वेषण,
संशोधन है यह यथार्थ का 
कर तथ्यों का विश्लेषण। 

छिपे सृष्टि के चित में सारे 
गुप्त रहस्य समझना है ,
फिर उनके आधार पे श्रीमन 
सिद्धान्तों को रचना है। 

बहुत प्रयोग-परीक्षण कर के 
संचय कर परिणामों का,
तब विज्ञान प्रक्रिया भू पर   
उद्गम होता नियमों का। 

यही नियम आधारशिला हैं 
इस प्रपञ्च के बोधन के,
ऐसे ही विज्ञान बने हैं ,
सारे विषय प्रबन्धन के। 

नहीं सरल व्यवहार समझना,
मानव विचित्र प्राणी है,
लगा सही अनुमान सके ना 
ऐसा कोई ज्ञानी है ।  

फिर भी करते यत्न सदा हम  
यही हमारी है आशा,
सतत प्रयास व्यवस्थित, बंधु,
है विज्ञान की परिभाषा। 

सत्य मार्ग पर है प्रयाण,   
विज्ञान कोई गंतव्य नहीं, 
इसी राह पर चलते रहना
है विज्ञान का लक्ष्य यही। 

सुनकर मेरी बात महाशय 
भाव प्रवाह में बह बैठे,
पाप हुआ हम गुस्से में जो  
इतनी बातें कह बैठे। 

सीख मिली जो आज आपसे,
गलती अभी सुधारूंगा, 
अपने सारे बच्चों से मैं 
M.B.A. करवाऊंगा।