Wednesday, November 19, 2025

इस शहर को क्या हो गया है?


इस शहर को क्या हो गया है?
हर तरफ बस एक धुंआ सा है दीखता। 

ये कैसी निराशा, ये कैसा अँधेरा?
ये कैसे दुःखों की घटाओं ने घेरा?
सुनो हर एक कण को, जो है चीखता।  
इस शहर को क्या हो गया है?
हर तरफ बस एक धुंआ सा है दीखता। 

कभी ये भी फूल और गुल से सजा था, 
बाग-ओ-बगीचों की हंसी से भरा था,
पत्ता भी खांसे कहीं कोई छींकता। 
इस शहर को क्या हो गया है?
हर तरफ बस एक धुंआ सा है दीखता। 

खिले धूप सर्दी में हमने सुना था,
नीला वो आकाश हमने सुना था,
अचरज है ऐसा भी वक़्त कोई ठीक था। 
इस शहर को क्या हो गया है?
हर तरफ बस एक धुंआ सा है दीखता। 

Sunday, July 27, 2025

बोली बनाम धर्म


आया वो करने व्यापार,
पालन को अपना परिवार,
थोड़े पैसों से करने को
अपने प्रियजन का उद्धार। 

कश्मल सूकर-टोल रहा,
पूति वायु में घोल रहा,   
वही शत्रु है क्योंकि वह न 
मेरी बोली बोल रहा।  

आंखों में है खून सवार, 
होठों पर गूंजी ललकार, 
हरने मेरे प्राण आ रहा 
हाथों में लेकर हथियार। 

गुस्से में वह डोल रहा,
गुनाह मेरे तोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा। 

विनय सरल वो करे नमन,
हाथ जोड़ कर अभिनन्दन,
आशा की मुस्कान होंठ पर,
कर व्यतीत अपना जीवन। 

भर्त्सन भरा कपोल रहा, 
आहत मुख बेडौल रहा,
वही शत्रु है क्योंकि वह न 
मेरी बोली बोल रहा।  

कर अभीत वह चीर हरण, 
पत्नी हो या मात बहन,
नहर, फ्रीज, पेटी में फेंके,
या भूमि में करे दफ़न। 

मान के धागे खोल रहा,
गरिमा का न मोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा। 

पूजा प्रेम सहित करता,
भक्ति पुष्प अर्पित करता,
मेरे इष्ट देव गुरुजन को 
निष्ठा से भूषित करता।

क्या अनर्थ माहौल रहा,
वो और मैं सम तोल रहा?
वही शत्रु है क्योंकि वह न 
मेरी बोली बोल रहा।  

विग्रह को खण्डित करता,
भक्ति भाव व्यथित करता,
मल से अपने या मूत्र से,
पूजास्थल दूषित करता।

धीरज को टटोल रहा,
श्रद्धा डावाडोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा। 


पाई पाई है कमा रहा,
पूंजी धन को जमा रहा,
बूंद-बूंद सींचे सपनों को,
खून-पसीना बहा रहा।   

इतना लोभी लोल रहा,
लालच का कल्लोल रहा,
वही शत्रु है क्योंकि वह न 
मेरी बोली बोल रहा।  

हुए प्रताडित सब दौड़े,
गांव गली घर सब छोड़े,
देख नाच उन्माद में उनको,
जिसने देवालय तोड़े। 

छूटा सब अनमोल रहा,
हाथों में कशकोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा। 

कर डालूंगा आज दमन,
उस दुर्जन का वंश पतन,
निज भाषी जो नहीं वो पापी, 
होगा उसका आज हनन। 

उड़ता आज मखौल रहा,
क्या उसका अब मोल रहा,
ख़त्म हुआ द्रोही जो था न 
मेरी बोली बोल रहा।  

रक्तरञ्जित आज पड़ा,
मिट्टी में अब हुआ गढ़ा,
शिशु बान्धव परिजन अब सारे,
उसी मित्र को बलि चढ़ा।
 
भू सम्बन्ध अमोल रहा,  
इसी मृदा में घोल रहा,
अब क्या पड़ता फ़र्क मुझे वो 
मेरी बोली बोल रहा।

Monday, March 24, 2025

मोबाइल युग

ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

जहां भी मैं देखूं यही है नज़ारा,
बच्चा जवां या बुढ़ापे का मारा,
आते हैं जाते कोई सुध कहां है,
मदहोश ऐसे सभी अब यहां हैं,
दुनिया को अपनी भुलाए खड़ा है।
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

उंगली से अपनी है करता इशारे,
ऐसे समय अपना सारा ग़ुज़ारे,
कहीं कोई टिन–टिन कहीं कोई टन–टन,
घड़ी दो घड़ी ढूंढता मनोरंजन,
मिथ्या में खुद को छुपाए खड़ा है।
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

बेड़ी नहीं है नहीं कोई बंधन,
फिर किस गुलामी में जीता है जीवन,
खुशी कोई उसको तो मिलती नहीं है,
कोई वेदना भी संभलती नहीं है,
नशे में ये खुद को डुबाए खड़ा है।
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

संभावना अनगिनत हाथ में है,
मौका ये विज्ञान का हाथ में है,
चाहे तो पा ले वो संसार सारा,
मन का मिटा दे वो अंधेर सारा,
मौका ये फिर क्यों गंवाए खड़ा है?
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

अपनों से बातों की फ़ुरसत नहीं है,
इक दूसरे की ज़रूरत नहीं है,
मिटा डालने को अपनी निशानी,
खुद की तबाही की लिखने कहानी,
तरकीब क्यों ये बनाए खड़ा है?
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?

Friday, February 14, 2025

14 फरवरी


अब क्या कहें किस मुसीबत में हम हैं,
खुशियों के मौसम में कैसा ये ग़म है। 
अचानक समय ने बदली जो करवट,
तबाही की देती सुनाई है आहट।

सुबह आज वैसे ही थी जैसे कल थी,
सुकूं देती वो सर्दियों की ग़ज़ल थी। 

न सूझा हमें चाय पी जब रहे थे,
इतने सयाने अजी कब रहे थे। 
वो बैठी थी उम्मीद से मुझको ताके,
कभी वो इधर तो उधर थी वो झांके। 

लगा हमको शायद कि कुछ खो चुका है,
ऐसा तो पहले बहुत हो चुका है,
यही सोच कर बात मैंने बदल दी,
जाना है दफ़्तर मुझे आज जल्दी। 

कुर्सी से जैसे उठी वो उखड़ के,
हम सोचें कुछ तो हुआ आज तड़के,
अब तो इसी में है मेरी भलाई,
चुपचाप दफ़्तर निकल जाओ भाई। 

हमें बात तब भी समझ में न आयी,
टिफ़िन बॉक्स में देखी जब इक मिठाई,
पसंदीदा सब्ज़ी, पराठे वो सारे,
हजम कर के मारे थे जब हम डकारें। 
समझ काश पाते नज़ाकत वो पल के, 
ताले ही खुल जाते मेरी अकल के। 

हुई शाम लौटा मैं जो अपने घर पे,
खड़ी थी वो हाथों को रख के कमर पे,
गुस्से से आँखों में छायी थी लाली,
साक्षात दुर्गा भवानी मां काली।

उसी पल अकल के घोड़े दौड़ाये,
कहाँ क्या मैं भूला मुझे याद आये,
तभी याद आयी हमें उस घडी की,
चौदह की तारीख थी फरवरी की। 

हमें सांप सूंघा उड़ा रंग मुख का,
उस बेवक़ूफ़ी का मुझको जो दुःख था,
उसको मगर मान कैसे मैं लेता?
खुद अपनी ही जान कैसे मैं लेता?

मर्दानगी ने मेरी मुझको झाड़ा,
मैंने भी ऊंची ध्वनि में दहाड़ा,
मालूम है मुझको भूला नहीं हूँ,
यूं ही मैं आग बबूला नहीं हूँ,
कल्चर ये अपना नहीं है पराया,
दिन आजतक ये न मैंने मनाया,
फुर्सत नहीं मुझको इस मसखरी की,
चौदह की तारीख ये फ़रवरी की। 

कुछ न कही वो मेरे पास आयी,
कानों में आकर मेरे फुसफुसाई,
तुम्हारी ये बातों को स्वीकारती हूँ ,
फिरंगी ये कल्चर पे धिक्कारती हूँ। 
कहूँ सच तो मुझको नहीं कुछ पड़ी जी,
चौदह या सोलह या छह फरवरी की।   

मगर खोल कानों को सुन लो ओ प्यारे,
कभी पास चाहो जो आना हमारे,
गर प्यार हमसे तुम्हारा ये सच्चा,
ला दोगे तोहफ़ा हमें आज अच्छा। 
नहीं तो ये वादा है तुमसे हमारा,
सोफ़ा ही बिस्तर बनेगा तुम्हारा,
शुरुआत हो जाएगी इस कड़ी की,
चौदह की तारीख़ से फ़रवरी की।  

सुन कर ज़रा ये सहम सा गया मैं,
मर्दानी राहों में थम सा गया मैं,
उसकी निगाहों में डर था न कोई,
गुस्से का मेरे असर था न कोई। 

रहा हूँ भटक इसलिए सारी गलियां,
अनजान काली ये अंधियारी गलियां,
मिल जाए मुझको फूलों का दस्ता,
छोटा बड़ा ही महंगा या सस्ता। 

अब तो ये लगता कठिन भूल पाऊं,
अपना भले जनमदिन भूल जाऊं,
भूलूं न अब सीख ये फ़रवरी की, 
चौदह की तारीख ये फ़रवरी की।

Sunday, February 02, 2025

संपर्क

 क्या सुनाऊं अपना हाल,

फंसा हुआ मैं किस जंजाल,
कैसे कर लूं बात किसी से,
ऐसा मुश्किल बना सवाल । 

पहले बुलवा लाते थे,
खाते थे खिलाते थे,
घंटों-घंटों बैठ सामने 
गप्पे खूब लड़ाते थे। 

टेलिफोन फिर घर आया,
इक ऐसा मंज़र आया,
अब जाते हम नहीं कहीं पे,
ना कोई भी घर आया। 

दूर दूर से करते बात,
ऐसे होते अब हालात,
वाणी ही पहचान रह गयी,
शक़्ल न आती अब तो याद। 

फिर आया मोबाइल फ़ोन,
एस एम एस की बजती टोन,
अब वाणी की कहाँ ज़रुरत,
ख़बर भेजते रहकर मौन। 

इंटरनेट आया झटपट,
मैसेंजर फिर हुआ प्रकट,
अपनों अजनबियों का अंतर,
धीरे धीरे जाता घट। 

कौन मित्र है कौन अरी,
किसको क्या है किसे पड़ी,
आज यही कल वही बदलता,
मित्र यहाँ पर घड़ी-घड़ी। 

व्हाटसैप का हुआ जनम,
मुसीबतें न होती कम,
सामूहिक सन्देश भेजते,
एक साथ ही सबको हम। 

जब कोई उमड़ा विचार,
महत्वपूर्ण सा समाचार,
उठा फ़ोन कर डाला हमने,
उसी क्षण सर्वत्र प्रचार।  

और लगे है हमें बुरा,
ध्यान अगर दे नहीं ज़रा,
बेगैरत कम्बख्तों से अब,
ग्रुप मेरा है पड़ा भरा। 

कहां गए वो दोस्त सभी,
साथ खेल-कूदते कभी,
आज नाम भी याद न होता,
कब हो गए सब अजनबी। 

अब सब कुछ है मेरे पास,
फिर भी रहता हूँ उदास,
जाने क्यों इस भीड़ में मुझे,
तन्हाई होती एहसास।

Friday, January 03, 2025

मैनेजमेंट

एक अचानक दिन यूं मेरी, 
भेंट हुई एक सज्जन से,
बोले करनी बात आप से
सोचा था बहुत दिन से।

करते क्या हो आप काम जी,
क्या ही आप पढ़ाते हो? 
सच्चाई की दाल में श्रीमन 
कितना झूठ मिलाते हो।  

मैनेजमेंट विज्ञान नाम से 
ना बनता विज्ञान कोई,
ऐसे गोरखधंधे से अब 
ना रहता अनजान कोई। 

इसमें क्या कठिनाई है यह 
क्रय-विक्रय का है खेला,
सभी निपुण है इस क्रीड़ा में 
बड़ी कम्पनी या ठेला। 

कौशल का भी काम नहीं,
सभी भाग्य पर निर्भर है। 
फिर समझाएं हमें आपकी 
आवश्यकता क्योंकर है?

यदि होता विज्ञान विषय यह 
इसमें विजय निहित होता,
बिन बाधा अवरोध सफलता 
सदा सर्व निश्चित होता। 

नहीं उन्नति मार्ग दिखाते 
न भविष्य का अनावरण।
जो बीता उसको समझाने 
क्या लाभ होगा श्रीमन? 

सच तो है असमर्थ आप हैं 
देने कोई आश्वासन,
अनुपयुक्त है व्यर्थ निरर्थक 
लगे आपके सब प्रवचन। 

सुनी जब गर्जना सज्जन की 
सहम गया मैं तो क्षण भर,
ज्ञानव्योम पर उड़ता सपना 
सहसा बिखर गया गिर कर। 

पर समेट टुकड़े सपनों के 
मैंने फिर आकार दिया,
उस आलोचक की बातों पर,
थोड़ा गहन विचार किया। 

वस्तु नहीं विज्ञान, महोदय,
ग्रहण इसे कर ना सकते,
निर्विराम प्रक्रिया है यह तो,
चले निरन्तर ना थकते। 

अवलोकन निसर्ग का है यह 
सच्चाई का अन्वेषण,
संशोधन है यह यथार्थ का 
कर तथ्यों का विश्लेषण। 

छिपे सृष्टि के चित में सारे 
गुप्त रहस्य समझना है ,
फिर उनके आधार पे श्रीमन 
सिद्धान्तों को रचना है। 

बहुत प्रयोग-परीक्षण कर के 
संचय कर परिणामों का,
तब विज्ञान प्रक्रिया भू पर   
उद्गम होता नियमों का। 

यही नियम आधारशिला हैं 
इस प्रपञ्च के बोधन के,
ऐसे ही विज्ञान बने हैं ,
सारे विषय प्रबन्धन के। 

नहीं सरल व्यवहार समझना,
मानव विचित्र प्राणी है,
लगा सही अनुमान सके ना 
ऐसा कोई ज्ञानी है ।  

फिर भी करते यत्न सदा हम  
यही हमारी है आशा,
सतत प्रयास व्यवस्थित, बंधु,
है विज्ञान की परिभाषा। 

सत्य मार्ग पर है प्रयाण,   
विज्ञान कोई गंतव्य नहीं, 
इसी राह पर चलते रहना
है विज्ञान का लक्ष्य यही। 

सुनकर मेरी बात महाशय 
भाव प्रवाह में बह बैठे,
पाप हुआ हम गुस्से में जो  
इतनी बातें कह बैठे। 

सीख मिली जो आज आपसे,
गलती अभी सुधारूंगा, 
अपने सारे बच्चों से मैं 
M.B.A. करवाऊंगा। 

Wednesday, October 30, 2024

वानर राज

 

प्राचीन किसी काल की,
किसी बीते साल की,
एक कथा पुरानी है,
जो सबको सुनानी है।
 
एक घने जंगल में,
समय बिताते कौतूहल में,
प्राणियों पर संकट आया,
अकाल का समय विकट आया।
 
सूखे सारे नदी ताल,
सूखे सारे वृक्ष विशाल,
तृण घास भी हुई विरल,
पड़े जन्तु सारे शिथिल।
 
व्याकुलता में सब पड़े,
घोर चिन्तन में खड़े,
कैसे बचें इस दुविधा से,
मुक्ति पाएं इस क्षुधा से।
 
तभी बन्दर एक चिल्लाया,
सर्वसम्बोधन कर बतलाया,
तुम्हारे दुःखों का जो कारण है,
उसका एक ही निवारण है।
 
उठा फेंको उसको सिंहासन से,
पीड़ित हो जिसके शासन से,
असमर्थ अक्षम है वो,
आलस में क्या कम है वो।
 
बैठा बैठा गुर्राता है,
मुफ़्त की रोटी खाता है,
मूढ़ है वह न विचलित है,
अपना मरना तो निश्चित है।
 
है समय यही आन्दोलन का,
आधारभूत परिवर्तन का,
एक नए राजन का करो चयन,
जनसेवा में जिसकी लगन।
 
जो स्फूर्ति से हो भरा,
विचरता वृक्ष हो या धरा,
जो लंबी दूरी हो लांघता,
मैं बस इतना ही माँगता।
 
मेरी बात से यदि हो सहमत,
दे दो मुझको अपना मत,
अपनी क़िस्मत चमकाओगे,
दिन रात पेट भर खाओगे।
 
प्रत्येक प्रजाति पाए आहार 
उनकी संख्या के अनुसार 
भोजन रहे पर्याप्त सदा,
मिट जाएगी यह आपदा।  

दुःखों का मैं करूँगा नाश,
इतना दिलाता हूं विश्वास,
सबको मैं न्याय दिलाऊंगा,
अच्छे दिन वापस लाऊंगा।

आक्रोश से भर गई सभा,
दुःख के बोझ में जो था दबा,
उसको उम्मीद की एक किरण,
था मर्कट का वह भाषण।
 
हाँ। यही सही होता प्रतीत,
कब तक करें ऐसे व्यतीत,
जीवन ये दुखदायी इतना,
कष्ट भरा हैं इसमें कितना।
 
बन्दर ये कहता सत्य है,
इसकी बातों में तथ्य है,
इस सिंह से अब कुछ नहीं होगा,
इसने है सुख सिर्फ़ भोगा।
 
हम इसको सबक सिखायेंगे,
ऐसी धूल चटायेंगे,
इतना अद्भुत होगा पतन,
वर्षों वर्षों होगा स्मरण।
 
और फिर हुआ तख़्ता पलट,
बन्दर राजा बना झटपट,
अब दुःख मेघ छँट जायेंगे,
दिन सन्तोष में कट जाएँगे।
 
और ऐसे ही दिन कुछ बीत गए,
प्राणी सारे भयभीत हुए,
बन्दर की कोई खबर नहीं,
दुर्दशा वही, कोई अन्तर नहीं,
कुछ नहीं हुआ कोई सुधार,
भीषण अकाल की पड़ती मार।
 
बन्दर कुछ तो करता होगा,
यह दृश्य उसको भी अखरता होगा,
उसने था दिया आश्वासन,
इसलिए चुना था उसको राजन।
 
चलो उससे हम आयें मिल,
वो भी जाने अपनी मुश्किल,
ऐसा कह सब मिलकर चले,
उस कपि राजा के घर चले।
 
वट का तरु था एक महान,
सम्मुख उसके विराजमान,
इक खाट पर पड़ा सुप्त था,
स्वप्नलोक में लुप्त था।
 
बन्दर को देख अचरज हुआ,
प्रजा को क्रोध सहज हुआ,
बातें करी थी लम्बी चौड़ी,
करोगे तुम भागा दौड़ी,
रह चुस्त सदा होगे तत्पर,
अब सोते पड़े हो खाट पर।
 
यह सुन वानर अब हुआ खड़ा,
और तुरन्त वटवृक्ष पर चढ़ा,
दो पल पश्चात् नीचे उतर,
चढ़ बैठा फिर से वह तरु पर।
 
ऐसा ही वक़्त गुज़रता रहा,
चढ़ता वह फिर उतरता रहा,
रुकने का लिया नहीं नाम,
ऐसे ही सुबह हो गई शाम।
 
एक हिरण का धीरज टूटा,
सब्र क्रोध बन कर फूटा,
राजा यह आप क्या कर रहे,
बस पेड़ पर चढ़ उतर रहे।
 
चढ़ते चढ़ते मर्कट थमा,
टहनी पर वह आ कर जमा,
आँखों को फाड़ कर गुर्राया,
खीजते हुए वह चिल्लाया।
 
कैसे कृतघ्न प्राणी हो तुम,
निर्लज्ज विद्रोह वाणी हो तुम,
अच्छे बुरे की पहचान नहीं,
नृप का करते सम्मान नहीं।
 
अविश्वास से करते सवाल,
तुमको न दिखता मेरा हाल,
क्या तुम्हें सिंह ने भड़काया,
उसने क्या तुम्हें यहाँ भिजवाया।
 
करते हो वाद वितण्ड तुम,
क्या चाहते मृत्युदण्ड तुम,
यदि होता न अब वानर का राज,
भक्ष हो जाते तुम आज।
 
लोक कल्याण में सदा तत्पर,
सुबह से शाम तक निरन्तर,
लगातार काम मैं कर रहा हूं,
देखो, मैं इस पेड़ पर चढ़ कर उतर रहा हूँ।
 

Saturday, October 12, 2024

घायल सभ्यता

होती यत्र सुगन्ध सभ्यता के पुष्पों के उपवन की, 

आज गूंजती उन पुष्पों की रुदन हृदय में कण कण की।

Tuesday, August 27, 2024

अच्छे दिन


बोध था ना नाश का सामान लेकर आ गये,
भेस साधु में वही शैतान लेकर आ गये।

आग जिस से था बचाना वृक्ष को अस्तित्व का,
उस अनल को कुम्भ घृत का दान देकर आ गये।

मथ समन्दर को चले पाने अमरता का घड़ा, 
घोर कायरता भरा विष पान लेकर आ गये।

यज्ञ करते धर्म रक्षा का सदा संकल्प ले,
वेदि पर सह स्वप्न के हम प्राण देकर आ गये।

विस्मरित इतिहास का गौरव उजागर आस में,
सन्तति के भविष्य का बलिदान देकर आ गये। 

Monday, January 22, 2024

राम का राज्य

 भारत भू पर पुनः राम का पुण्य काल आरम्भ हुआ। 


असुर असत का भवन गिरा, 
हुई पुनर्जीवित धरा,  
भक्ति शक्ति बल साहस से अब ध्वस्त दुष्ट का दम्भ हुआ। 
भारत भू पर पुनः राम का पुण्य काल आरम्भ हुआ। 

हुए प्रफुल्लित सब जन मन,
आनन्दित होता कण कण,
शोक सभ्यता को आशा विश्वास नाम आलंब हुआ।
भारत भू पर पुनः राम का पुण्य काल आरम्भ हुआ। 

सदियों (तक) सहता रहा दमन,
दुःख सहा भयंकारी भीषण, 
बूँद-बूंद अश्रु का उनके विजय ध्वजा का स्तम्भ हुआ। 
भारत भू पर पुनः राम का पुण्य काल आरम्भ हुआ। 

Saturday, September 16, 2023

सनातन

 मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।


आदि काल से जीवित जो, चिरञ्जीव है शाश्वत जो,

युगों युगों से करता आया मोक्ष मार्ग प्रकाशित जो। 

कभी थका है दीप भला वो ज्ञान ज्योति का जलने से।

मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।


जिसपर अत्याचार हुआ, झूठ-कपट का वार हुआ,

तत्त्वों का तथ्यों का कण कण रक्त-सिन्धु का धार हुआ।

रोक सका है क्या कोई आदित्य सत्य का उगने से।

मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।


जब भी पापी गुर्राया, खड्ग पवन में लहराया,

कट कर उसका शीर्ष गिरा है अहंकार जिस पर छाया।

कभी झुका है शूर भला ही युद्ध धर्म का लड़ने से। 

मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।


मथुरा और अवध टूटा, सोमनाथ को भी लूटा,

बन्द कुएं में छिपा हुआ नन्दी का विश्वनाथ छूटा।

रोक सका है क्या कोई देवाल भक्ति का बनने से।

मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।

Thursday, July 20, 2023

हताशा


कुछ इस तरह लड़ते रहे हम उम्र से, 
अब ज़ोर लगाने की भी ताक़त न रही। 

छूटता रहा जो मेरे हाथ में था,     
उसे पकड़ पाने की भी चाहत न रही। 

बनाकर हमसफ़र जो ग़म को हम चले,
खुश होकर जीने की भी आदत न रही।

किस से मात खाते किस्मत के मारे,
किस्मत बदल जाने की भी किस्मत न रही। 

थक गया चढ़कर नाकामी की चोटी,
अब कुछ कर जाने की भी हसरत न रही।

Friday, January 13, 2023

शुतुरमुर्ग का शासन


इक संस्थान निराला जिस में नगरी एक बसायी थी। 

उदयभानु के वर्णिम जैसी शोणित इष्टि सजायी थी। 

सुन्दरता जिसकी दर्शन करने परदेसी आते थे। 
लाल-हरित की क्रीड़ाओं में मन्त्र मुग्ध हो जाते थे। 

इस शोभा के उदर में पर दुःख के सङ्केत उजागर थे। 
चण्डवात से घिरी हो लहरें आकुलता के सागर में। 

जन्तु जन्तु को काट रहा भीकर परिवेश विराट रहा।
त्राहि त्राहि कर प्रजा परन्तु सुप्त मूक सम्राट रहा। 

होता था जलपात धरा पर जब श्रावण के मेघों का,
अश्रुधार में बह जाता था वाहन सबके सपनों का। 

निद्रा ने तज दिया सभी का साथ शान्ति ने छोड़ दिया। 
शोर धूम रज कल्मषजल ने बांध स्वास्थ्य का तोड़ दिया। 

नियम हुए विस्मरित अराजकता का रूप हुआ गम्भीर। 
जिसको भेद नहीं कर पाया कोई अनुशासन का तीर। 

व्याकुलता सन्ताप दृश्य हर ओर दिखाई दे जाता।
शोक वेदना का ऊंचा चीत्कार सुनाई दे जाता। 

कोलाहल की ज्वाला का उस नगरी को आलिङ्गन था   
पर भूमि में शीर्ष गढ़ाये बैठा उसका राजन था।  


Saturday, August 27, 2022

जिन्दगी

 पढ़ते भी रहे हम लिखते भी रहे,

हंसे तो कभी सिसकते भी रहे,

कभी लगाते मोल बने खरीददार,

कभी बाज़ार में बिकते भी रहें।


कभी देखा वादी–पहाड़ों को,

देखा सुलगती गर्मी और जाड़ों को,

कभी ठहर के देखा समन्दर की तरह,

कभी चञ्चल नदी से बहते रहें।


कभी बांधा शब्दों को रागों में,

कभी खिलाया फूलों को बागों में,

सङ्गीत साज़ों में सजाते कहीं,

तो कभी गीतों पर हम थिरकते रहें।


कोई कह गया..

कि जो यूं ज़िन्दगी बिताओगे,

ज़िन्दगी क्या है जान पाओगे,

कि जीवन का मतलब हमें,

आ जायेगा समझ सब हमें।

पर कुछ कमी शायद हम में ही थी,

कि हम जितने बने उतने बिखरते रहें।

Sunday, March 20, 2022

एक दोपहर

एक सुस्त दोपहर
लेटे थे हम बिस्तर पर
करने को थोड़ा आराम
कि तभी अचानक से, श्रीमान,
फ़ोन हमारा चीखा चिल्लाया,
किसी का बुलावा था आया।
बन्द पलकों के साथ ही हमने हाथ बढ़ाया,
फ़ोन को उठाकर कानों से लगाया,
और बेज़ार सी आवाज़ में फ़रमाया,
"हैलो।"


एक पल का था सन्नाटा,
और इसके पहले की हमारा मुँह खुल पाता,
एक मीठी वाणी का उस ओर उद्गम हुआ
जैसे अमृत और मधु का सङ्गम हुआ,
अवश्य ही वह कोई अप्सरा थी जिसका पृथ्वी पर जनम हुआ।
वैसे तो हम खुश ही हैं ,
लेकिन उस पल अपने विवाहित होने का हमें थोड़ा सा ज़रूर ग़म हुआ। 


खैर सपनों की दुनिया से खुद को निकाला,
अपनी बची-खुची जवानी को सम्भाला,
अपनी भावनाओं को कर के कण्ट्रोल,
अपनी उम्र के तराज़ू में शब्दों को तोल,
जैसे-तैसे हिम्मत जुटाए,
उन मोहतरमा से हम फ़रमाये,
"कहिये, मैं क्या मदद कर सकता हूं आपकी?" 


"जी मैंने सुना है कि आप पीएचडी के छात्र है,
और वाकई प्रशंसा के पात्र हैं,
पर हमने भी पीएचडी के देखें हैं ख़्वाब,
यह निर्णय सही है या ख़राब,
ऐसे ही कुछ प्रश्नों के पाने थे जवाब,
इसीलिए आपको कॉल किया है जनाब।"


बस उसी क्षण हुई स्वप्न-नगरी ध्वस्त,
हौसले हुए पस्त,
आँखों के आगे दुःख के बादल मण्डराये,
और हम असलियत में वापस लौट आये।
बोले, "बहन... अब आपको क्या बताएं,
अपनी कहानी कहां से सुनाएं"


आईआईएम का कैम्पस स्वस्थ्य का बाज़ार है,
यहां आते ही व्यक्ति हो जाता वेट-लॉस का शिकार है,
जो खा लेता इसकी मेस में एक बार है,
उसे हो जाता फिटनेस से प्यार है। 


सच कहें तो आईआईएम ने हमें इतना प्यार सिखा दिया,
संवेदना क्या होती है यह भी दिखा दिया,
बेदिल हैं वो लोग जो कुत्तों को कैम्पस से हटवाते हैं,
भई, कुत्तों का मन रखने को महीने में एक-दो बार तो हम भी खुद को उनसे कटवाते हैं। 


मैंने कहा, "देवी जी।"
आईआईएम के पानी में इतनी प्यूरिटी है,
कि अच्छे-अच्छों को मिल जाती मैच्युरिटी है। 
हम  जब यहां आये थे अपना सामान लेके,
सर पे बालों की पूरी दूकान लेके,
पूरी पर्सनालिटी में ऐसे फेरबदल हो गए,
कि तीन साल में भैया से अङ्कल हो गए। 


मैडम जी, आईआईएम आस्था से ओत-प्रोत है,
भक्ति-भाव का अद्वितीय स्रोत है। 
ऐसे माहौल में पढ़ते हुए, 
वन-प्राणी वातावरण या स्वयं भगवान से लड़ते हुए,
जब आप कभी थक जाएँ,
पढ़-पढ़ के पक जाएं,
फिर भी न मिलेगा आराम है,
क्या कहें इतना सारा काम है,
कि नास्तिक को भी ईश्वर समरण आ जाते हैं,
प्रार्थना में स्वयं को हर क्षण पाते हैं। 


तो अब आप ही कहें, माय डिअर,
आपको सारे सङ्केत तो दिख रहे होंगे क्लियर। 
जब ऐसा हो निराला संस्थान,
तो कोई कितना करे उसकी महानता का बखान। 
स्वास्थय व प्रेम का वास्ता,
मैच्युरिटी और भगवान में आस्था,
यह आईआईएम इन सब का परम उदाहरण है,
मेरे यहां आने का, डार्लिंग, बस यही कारण है। 


फिर फ़ोन पर एक ख़ामोशी छायी,
कुछ समय के लिए कोई आवाज़ नहीं आयी,
फिर इसके पहले कि हम कुछ कह पाते,
कन्या से उसका नाम पता ही जान पाते,
उसने फ़ोन पटक दिया,
हमारे दोस्ती में बढ़ते हाथ को झटक दिया। 
खैर, हमने अपनी नज़र घुमाई,
अभी भी थी भरी दुपहरी छायी,
और लेटे-लेटे उसी बिस्तर पर,
फिर सो गए अपनी पलकें बन्द कर। 

Tuesday, April 14, 2020

तालाबंदी (लॉकडाउन)


वश में अपने सब करने को, 
संपूर्ण सृष्टि को हरने को,
जिसने समस्त उपचार किया, 
पृथ्वी पर अत्याचार किया, 
वह आज घरों में अपने ही लाचार खिन्न सा बसता है,
देख अनोखा दृश्य मनुज का विषमाणु यह हँसता है। 

अपनी विलासिता वृद्धि से, 
अपनी सुख व समृद्धि से, 
जन्तू-जंगल का नाश किया, 
सागर आकाश विनाश किया, 
वह आज अभाव से घिरा हुआ इंसान अकेला पिसता है,
देख अनोखा दृश्य मनुज का विषमाणु यह हँसता है। 

दर्पण निसर्ग का देखा ना, 
हित सर्व भूत का सीखा ना, 
अपने अंदर न झांक सका,
अपना ही दोष न आंक सका, 
वह आज नसल भगवान राजनीति के ताने कसता है,
देख अनोखा दृश्य मनुज का विषमाणु यह हँसता है। 

Thursday, March 19, 2020

निर्माण गुणगान


वर्णन है निर्माण कार्य से कितना प्रेम हम करते हैं,
दिन-प्रतिदिन तेरी चरणों का धूलपान हम करते हैं। 

सुन्दर सप्त-स्वरों सा मधु संगीत सुनाई देता है,
ट्रक ट्रेक्टर मुद्गर मिलकर जब शोर अधिकतम करते हैं। 

तीरथ-पुण्य प्राप्त होता है जब भी वर्षा होती है,
निर्मल-सरित रूप कीचड़ व जल जो संगम करते हैं। 

दया तुम्हारी प्राप्त हुई आलस का हमने नाश किया,
निद्रा-मुक्त हुए जन जग हम नित्य परिश्रम करते हैं। 

Thursday, August 15, 2013

Remember this day

Remember this day
For our glorious history
For our torturous past
For the promise of future
For our legacy vast

Remember this day
For our rivers mighty
For our mountains immense
For our bountiful soil
For our forests dense

Remember this day
For our vibrant culture
For our religions unique
For our philosophy
For our spiritual mystique

Remember this day
For our mathematics
For inventions and discoveries
For our technology
For our great universities

Remember this day
For our languages aplenty
For our literature divine
For our music and dances
For our cuisines fine

Remember this day
For the lives that were lost
For the sacrifices made
to protect what we cherish
For the prices we paid

Remember this day
For like this it was not
Remember this day
For the battles we fought

Remember this day
Not because India was born today;
She has lived a long life.
For we won what was rightfully ours
after centuries of struggle and strife

Remember this day
Not for mere independence,
but for our legacy and duty
For the responsibilities we shoulder
For our love for our country

Jai Hind!

Tuesday, July 23, 2013

जन्म दिन

नये बरस की नयी सुबह
खुशियाँ ले कर आयी हैं 
उम्मीदें खुशहालीयों की 
हर पल में समाई हैं 

मखमलों की कोमलता से 
उसने मुझे जगाया था 
बेटी ने अपने हाथों से
गालों को सहलाया था 

शहद घुल गया कानों में 
उसके मुख से जब छूटा 
तुतलाता एक Happy Budday
प्यारा सा टूटा फूटा 

शर्माती आँखों के पीछे 
प्यार कहीं छुपायी थी 
पत्नी जी ने जब मुस्काते
दी हमको बधाई थी 

सच पूछें तो चाहत उनकी 
जैसे किशन की  राधा थी 
मेरे जनम दिवस की खुशियाँ
उनको मुझसे ज़्यादा थी 

माँ पिताजी भाई बहना 
सबका मुझको प्यार मिला 
मित्रों और सहेलियों का
स्नेह भी अपार मिला 

सच कहा था संतो ने जो 
अब हमने भी सीखा है 
ऐसी संपत्ति के आगे 
सोना चांदी फीका है 

Monday, April 22, 2013

सत्यमेव जयते (Satyamev Jayate)


न कपट न चाल से 
खड्ग से न ढाल से 
भेद छल  धूर्तता से
द्वन्द  होगी तथ्य की 

झूठ का विनाश होगा 
जीत होगी सत्य की 


दुष्टता अपार है
सभ्यता बीमार है  
न रहेगी ख़ाक भी 
दानवों न दैत्य की 

झूठ का विनाश होगा 
जीत होगी सत्य की 


संकल्प ये अटल रहे 
बाहुओं में बल रहे 
सत्य के आधार पे ही 
सृष्टि हो भविष्य की 

झूठ का विनाश होगा 
जीत होगी सत्य की 

Monday, August 15, 2011

Bharat Mata


उठो नींद से तुम नज़र तो घुमाओ
बुलाती हैं चिल्ला के कोई बचाओ

लुटी जा रही जिसकी इज्ज़त बेचारी
गुनाहों की तलवार पड़ी जिसपे भारी

ना बेटा ना बेटी न ही कोई आया
वो सोता रहा जिस किसी को बुलाया

ना देखी किसी ने नुमाइश कली की
जो नाज़-ओ-मोहब्बत से अब तक पली थी

ये बिखरते से सपने बिलखती सी आँहें
ये आँखें सिसकती सिमटती सी बाहें

जो कहती हैं अब ना नज़र मूँद देखो
छुपा प्यार दिल में कहीं ढूंढ देखो

ना जलने दो शैतान की आग में तुम
ना हो जाऊं इतिहास में मैं कहीं गुम

मैं धरती हूँ जिसपे तुम चलना थे सीखे
मैं बारिश हूँ जिसमें कई बार भीगे

मैं गोदी हूँ जिसमें तुम सर रख के सोये
मैं आँचल हूँ जिसमें तुम छुप कर थे रोये

वही माँ हूँ मैं जिसने तुमको संभाला
मोहब्बत और बलिदान से तुमको पाला

ये विनती है तुमसे ना मुंह फेर जाओ
बुलाती हूँ तुमको के मुझको बचाओ

Wednesday, July 28, 2010

Moment

Drenched from head to toe,
beads of sweat begin to show,
the heart beats faster with every breath
exhorting the limbs to fight the flow.

The sky bright and the shining sun,
clouds embellished at the horizon,
the chirping birds, the dancing trees
by a watery gloom were overrun.

The feet moved at a frenetic pace,
the arms extended wanting to raise,
the eyes open wide to catch glimpses of life
as the colour runs off the face.

And as the breath turns into a gasp,
the fists close tight in a bid to grasp,
the thread breaks and the ties are snapped,
from the lap of Life into Death's clasp.