And you think your world is Verse...
The poems and verses that I have written over time. I do hope you enjoy them.
Wednesday, November 19, 2025
इस शहर को क्या हो गया है?
Sunday, July 27, 2025
बोली बनाम धर्म
पालन को अपना परिवार,
थोड़े पैसों से करने को
अपने प्रियजन का उद्धार।
कश्मल सूकर-टोल रहा,
पूति वायु में घोल रहा,
वही शत्रु है क्योंकि वह न
मेरी बोली बोल रहा।
होठों पर गूंजी ललकार,
हरने मेरे प्राण आ रहा
हाथों में लेकर हथियार।
गुस्से में वह डोल रहा,
गुनाह मेरे तोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा।
हाथ जोड़ कर अभिनन्दन,
आशा की मुस्कान होंठ पर,
कर व्यतीत अपना जीवन।
भर्त्सन भरा कपोल रहा,
आहत मुख बेडौल रहा,
वही शत्रु है क्योंकि वह न
मेरी बोली बोल रहा।
नहर, फ्रीज, पेटी में फेंके,
या भूमि में करे दफ़न।
मान के धागे खोल रहा,
गरिमा का न मोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा।
भक्ति पुष्प अर्पित करता,
मेरे इष्ट देव गुरुजन को
निष्ठा से भूषित करता।
क्या अनर्थ माहौल रहा,
वो और मैं सम तोल रहा?
वही शत्रु है क्योंकि वह न
मेरी बोली बोल रहा।
मल से अपने या मूत्र से,
पूजास्थल दूषित करता।
धीरज को टटोल रहा,
श्रद्धा डावाडोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा।
पाई पाई है कमा रहा,
पूंजी धन को जमा रहा,
बूंद-बूंद सींचे सपनों को,
खून-पसीना बहा रहा।
इतना लोभी लोल रहा,
लालच का कल्लोल रहा,
वही शत्रु है क्योंकि वह न
मेरी बोली बोल रहा।
देख नाच उन्माद में उनको,
जिसने देवालय तोड़े।
छूटा सब अनमोल रहा,
हाथों में कशकोल रहा,
वही मित्र मेरा क्योंकि वह
मेरी बोली बोल रहा।
कर डालूंगा आज दमन,
उस दुर्जन का वंश पतन,
निज भाषी जो नहीं वो पापी,
होगा उसका आज हनन।
उड़ता आज मखौल रहा,
क्या उसका अब मोल रहा,
ख़त्म हुआ द्रोही जो था न
मेरी बोली बोल रहा।
शिशु बान्धव परिजन अब सारे,
उसी मित्र को बलि चढ़ा।
भू सम्बन्ध अमोल रहा,
इसी मृदा में घोल रहा,
अब क्या पड़ता फ़र्क मुझे वो
मेरी बोली बोल रहा।
Monday, March 24, 2025
मोबाइल युग
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?
जहां भी मैं देखूं यही है नज़ारा,
बच्चा जवां या बुढ़ापे का मारा,
आते हैं जाते कोई सुध कहां है,
मदहोश ऐसे सभी अब यहां हैं,
दुनिया को अपनी भुलाए खड़ा है।
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?
उंगली से अपनी है करता इशारे,
ऐसे समय अपना सारा ग़ुज़ारे,
कहीं कोई टिन–टिन कहीं कोई टन–टन,
घड़ी दो घड़ी ढूंढता मनोरंजन,
मिथ्या में खुद को छुपाए खड़ा है।
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?
बेड़ी नहीं है नहीं कोई बंधन,
फिर किस गुलामी में जीता है जीवन,
खुशी कोई उसको तो मिलती नहीं है,
कोई वेदना भी संभलती नहीं है,
नशे में ये खुद को डुबाए खड़ा है।
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?
संभावना अनगिनत हाथ में है,
मौका ये विज्ञान का हाथ में है,
चाहे तो पा ले वो संसार सारा,
मन का मिटा दे वो अंधेर सारा,
मौका ये फिर क्यों गंवाए खड़ा है?
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?
अपनों से बातों की फ़ुरसत नहीं है,
इक दूसरे की ज़रूरत नहीं है,
मिटा डालने को अपनी निशानी,
खुद की तबाही की लिखने कहानी,
तरकीब क्यों ये बनाए खड़ा है?
ये इंसान क्यों सर झुकाए खड़ा है?
नज़र अपनी किस पे गढ़ाए खड़ा है?
Friday, February 14, 2025
14 फरवरी
Sunday, February 02, 2025
संपर्क
क्या सुनाऊं अपना हाल,
Friday, January 03, 2025
मैनेजमेंट
Wednesday, October 30, 2024
वानर राज
किसी बीते साल की,
एक कथा पुरानी है,
जो सबको सुनानी है।
एक घने जंगल में,
समय बिताते कौतूहल में,
प्राणियों पर संकट आया,
अकाल का समय विकट आया।
सूखे सारे नदी ताल,
सूखे सारे वृक्ष विशाल,
तृण घास भी हुई विरल,
पड़े जन्तु सारे शिथिल।
व्याकुलता में सब पड़े,
घोर चिन्तन में खड़े,
कैसे बचें इस दुविधा से,
मुक्ति पाएं इस क्षुधा से।
तभी बन्दर एक चिल्लाया,
सर्वसम्बोधन कर बतलाया,
तुम्हारे दुःखों का जो कारण है,
उसका एक ही निवारण है।
उठा फेंको उसको सिंहासन से,
पीड़ित हो जिसके शासन से,
असमर्थ अक्षम है वो,
आलस में क्या कम है वो।
बैठा बैठा गुर्राता है,
मुफ़्त की रोटी खाता है,
मूढ़ है वह न विचलित है,
अपना मरना तो निश्चित है।
है समय यही आन्दोलन का,
आधारभूत परिवर्तन का,
एक नए राजन का करो चयन,
जनसेवा में जिसकी लगन।
जो स्फूर्ति से हो भरा,
विचरता वृक्ष हो या धरा,
जो लंबी दूरी हो लांघता,
मैं बस इतना ही माँगता।
मेरी बात से यदि हो सहमत,
दे दो मुझको अपना मत,
अपनी क़िस्मत चमकाओगे,
दिन रात पेट भर खाओगे।
इतना दिलाता हूं विश्वास,
दुःख के बोझ में जो था दबा,
उसको उम्मीद की एक किरण,
था मर्कट का वह भाषण।
हाँ। यही सही होता प्रतीत,
कब तक करें ऐसे व्यतीत,
जीवन ये दुखदायी इतना,
कष्ट भरा हैं इसमें कितना।
बन्दर ये कहता सत्य है,
इसकी बातों में तथ्य है,
इस सिंह से अब कुछ नहीं होगा,
इसने है सुख सिर्फ़ भोगा।
हम इसको सबक सिखायेंगे,
ऐसी धूल चटायेंगे,
इतना अद्भुत होगा पतन,
वर्षों वर्षों होगा स्मरण।
और फिर हुआ तख़्ता पलट,
बन्दर राजा बना झटपट,
अब दुःख मेघ छँट जायेंगे,
दिन सन्तोष में कट जाएँगे।
और ऐसे ही दिन कुछ बीत गए,
प्राणी सारे भयभीत हुए,
बन्दर की कोई खबर नहीं,
दुर्दशा वही, कोई अन्तर नहीं,
कुछ नहीं हुआ कोई सुधार,
भीषण अकाल की पड़ती मार।
बन्दर कुछ तो करता होगा,
यह दृश्य उसको भी अखरता होगा,
उसने था दिया आश्वासन,
इसलिए चुना था उसको राजन।
चलो उससे हम आयें मिल,
वो भी जाने अपनी मुश्किल,
ऐसा कह सब मिलकर चले,
उस कपि राजा के घर चले।
वट का तरु था एक महान,
सम्मुख उसके विराजमान,
इक खाट पर पड़ा सुप्त था,
स्वप्नलोक में लुप्त था।
बन्दर को देख अचरज हुआ,
प्रजा को क्रोध सहज हुआ,
बातें करी थी लम्बी चौड़ी,
करोगे तुम भागा दौड़ी,
रह चुस्त सदा होगे तत्पर,
अब सोते पड़े हो खाट पर।
यह सुन वानर अब हुआ खड़ा,
और तुरन्त वटवृक्ष पर चढ़ा,
दो पल पश्चात् नीचे उतर,
चढ़ बैठा फिर से वह तरु पर।
ऐसा ही वक़्त गुज़रता रहा,
चढ़ता वह फिर उतरता रहा,
रुकने का लिया नहीं नाम,
ऐसे ही सुबह हो गई शाम।
एक हिरण का धीरज टूटा,
सब्र क्रोध बन कर फूटा,
राजा यह आप क्या कर रहे,
बस पेड़ पर चढ़ उतर रहे।
चढ़ते चढ़ते मर्कट थमा,
टहनी पर वह आ कर जमा,
आँखों को फाड़ कर गुर्राया,
खीजते हुए वह चिल्लाया।
कैसे कृतघ्न प्राणी हो तुम,
निर्लज्ज विद्रोह वाणी हो तुम,
अच्छे बुरे की पहचान नहीं,
नृप का करते सम्मान नहीं।
अविश्वास से करते सवाल,
तुमको न दिखता मेरा हाल,
क्या तुम्हें सिंह ने भड़काया,
उसने क्या तुम्हें यहाँ भिजवाया।
करते हो वाद वितण्ड तुम,
क्या चाहते मृत्युदण्ड तुम,
यदि होता न अब वानर का राज,
भक्ष हो जाते तुम आज।
लोक कल्याण में सदा तत्पर,
सुबह से शाम तक निरन्तर,
लगातार काम मैं कर रहा हूं,
देखो, मैं इस पेड़ पर चढ़ कर उतर रहा हूँ।
Saturday, October 12, 2024
घायल सभ्यता
होती यत्र सुगन्ध सभ्यता के पुष्पों के उपवन की,
आज गूंजती उन पुष्पों की रुदन हृदय में कण कण की।Tuesday, August 27, 2024
अच्छे दिन
भेस साधु में वही शैतान लेकर आ गये।
आग जिस से था बचाना वृक्ष को अस्तित्व का,
उस अनल को कुम्भ घृत का दान देकर आ गये।
मथ समन्दर को चले पाने अमरता का घड़ा,
यज्ञ करते धर्म रक्षा का सदा संकल्प ले,
Monday, January 22, 2024
राम का राज्य
भारत भू पर पुनः राम का पुण्य काल आरम्भ हुआ।
Saturday, September 16, 2023
सनातन
मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।
आदि काल से जीवित जो, चिरञ्जीव है शाश्वत जो,
युगों युगों से करता आया मोक्ष मार्ग प्रकाशित जो।
कभी थका है दीप भला वो ज्ञान ज्योति का जलने से।
मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।
जिसपर अत्याचार हुआ, झूठ-कपट का वार हुआ,
तत्त्वों का तथ्यों का कण कण रक्त-सिन्धु का धार हुआ।
रोक सका है क्या कोई आदित्य सत्य का उगने से।
मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।
जब भी पापी गुर्राया, खड्ग पवन में लहराया,
कट कर उसका शीर्ष गिरा है अहंकार जिस पर छाया।
कभी झुका है शूर भला ही युद्ध धर्म का लड़ने से।
मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।
मथुरा और अवध टूटा, सोमनाथ को भी लूटा,
बन्द कुएं में छिपा हुआ नन्दी का विश्वनाथ छूटा।
रोक सका है क्या कोई देवाल भक्ति का बनने से।
मिट सकता है नहीं सनातन कभी किसी के कहने से।
Thursday, July 20, 2023
हताशा
खुश होकर जीने की भी आदत न रही।
किस से मात खाते किस्मत के मारे,
किस्मत बदल जाने की भी किस्मत न रही।
अब कुछ कर जाने की भी हसरत न रही।
Friday, January 13, 2023
शुतुरमुर्ग का शासन
इक संस्थान निराला जिस में नगरी एक बसायी थी।
उदयभानु के वर्णिम जैसी शोणित इष्टि सजायी थी।
सुन्दरता जिसकी दर्शन करने परदेसी आते थे।
लाल-हरित की क्रीड़ाओं में मन्त्र मुग्ध हो जाते थे।
इस शोभा के उदर में पर दुःख के सङ्केत उजागर थे।
चण्डवात से घिरी हो लहरें आकुलता के सागर में।
जन्तु जन्तु को काट रहा भीकर परिवेश विराट रहा।
त्राहि त्राहि कर प्रजा परन्तु सुप्त मूक सम्राट रहा।
होता था जलपात धरा पर जब श्रावण के मेघों का,
अश्रुधार में बह जाता था वाहन सबके सपनों का।
निद्रा ने तज दिया सभी का साथ शान्ति ने छोड़ दिया।
शोर धूम रज कल्मषजल ने बांध स्वास्थ्य का तोड़ दिया।
नियम हुए विस्मरित अराजकता का रूप हुआ गम्भीर।
जिसको भेद नहीं कर पाया कोई अनुशासन का तीर।
व्याकुलता सन्ताप दृश्य हर ओर दिखाई दे जाता।
शोक वेदना का ऊंचा चीत्कार सुनाई दे जाता।
कोलाहल की ज्वाला का उस नगरी को आलिङ्गन था
पर भूमि में शीर्ष गढ़ाये बैठा उसका राजन था।
Saturday, August 27, 2022
जिन्दगी
पढ़ते भी रहे हम लिखते भी रहे,
हंसे तो कभी सिसकते भी रहे,
कभी लगाते मोल बने खरीददार,
कभी बाज़ार में बिकते भी रहें।
कभी देखा वादी–पहाड़ों को,
देखा सुलगती गर्मी और जाड़ों को,
कभी ठहर के देखा समन्दर की तरह,
कभी चञ्चल नदी से बहते रहें।
कभी बांधा शब्दों को रागों में,
कभी खिलाया फूलों को बागों में,
सङ्गीत साज़ों में सजाते कहीं,
तो कभी गीतों पर हम थिरकते रहें।
कोई कह गया..
कि जो यूं ज़िन्दगी बिताओगे,
ज़िन्दगी क्या है जान पाओगे,
कि जीवन का मतलब हमें,
आ जायेगा समझ सब हमें।
पर कुछ कमी शायद हम में ही थी,
कि हम जितने बने उतने बिखरते रहें।
Sunday, March 20, 2022
एक दोपहर
एक सुस्त दोपहर
लेटे थे हम बिस्तर पर
करने को थोड़ा आराम
कि तभी अचानक से, श्रीमान,
फ़ोन हमारा चीखा चिल्लाया,
किसी का बुलावा था आया।
बन्द पलकों के साथ ही हमने हाथ बढ़ाया,
फ़ोन को उठाकर कानों से लगाया,
और बेज़ार सी आवाज़ में फ़रमाया,
"हैलो।"
एक पल का था सन्नाटा,
और इसके पहले की हमारा मुँह खुल पाता,
एक मीठी वाणी का उस ओर उद्गम हुआ
जैसे अमृत और मधु का सङ्गम हुआ,
अवश्य ही वह कोई अप्सरा थी जिसका पृथ्वी पर जनम हुआ।
वैसे तो हम खुश ही हैं ,
लेकिन उस पल अपने विवाहित होने का हमें थोड़ा सा ज़रूर ग़म हुआ।
खैर सपनों की दुनिया से खुद को निकाला,
अपनी बची-खुची जवानी को सम्भाला,
अपनी भावनाओं को कर के कण्ट्रोल,
अपनी उम्र के तराज़ू में शब्दों को तोल,
जैसे-तैसे हिम्मत जुटाए,
उन मोहतरमा से हम फ़रमाये,
"कहिये, मैं क्या मदद कर सकता हूं आपकी?"
"जी मैंने सुना है कि आप पीएचडी के छात्र है,
और वाकई प्रशंसा के पात्र हैं,
पर हमने भी पीएचडी के देखें हैं ख़्वाब,
यह निर्णय सही है या ख़राब,
ऐसे ही कुछ प्रश्नों के पाने थे जवाब,
इसीलिए आपको कॉल किया है जनाब।"
बस उसी क्षण हुई स्वप्न-नगरी ध्वस्त,
हौसले हुए पस्त,
आँखों के आगे दुःख के बादल मण्डराये,
और हम असलियत में वापस लौट आये।
बोले, "बहन... अब आपको क्या बताएं,
अपनी कहानी कहां से सुनाएं"
आईआईएम का कैम्पस स्वस्थ्य का बाज़ार है,
यहां आते ही व्यक्ति हो जाता वेट-लॉस का शिकार है,
जो खा लेता इसकी मेस में एक बार है,
उसे हो जाता फिटनेस से प्यार है।
सच कहें तो आईआईएम ने हमें इतना प्यार सिखा दिया,
संवेदना क्या होती है यह भी दिखा दिया,
बेदिल हैं वो लोग जो कुत्तों को कैम्पस से हटवाते हैं,
भई, कुत्तों का मन रखने को महीने में एक-दो बार तो हम भी खुद को उनसे कटवाते हैं।
मैंने कहा, "देवी जी।"
आईआईएम के पानी में इतनी प्यूरिटी है,
कि अच्छे-अच्छों को मिल जाती मैच्युरिटी है।
हम जब यहां आये थे अपना सामान लेके,
सर पे बालों की पूरी दूकान लेके,
पूरी पर्सनालिटी में ऐसे फेरबदल हो गए,
कि तीन साल में भैया से अङ्कल हो गए।
मैडम जी, आईआईएम आस्था से ओत-प्रोत है,
भक्ति-भाव का अद्वितीय स्रोत है।
ऐसे माहौल में पढ़ते हुए,
वन-प्राणी वातावरण या स्वयं भगवान से लड़ते हुए,
जब आप कभी थक जाएँ,
पढ़-पढ़ के पक जाएं,
फिर भी न मिलेगा आराम है,
क्या कहें इतना सारा काम है,
कि नास्तिक को भी ईश्वर समरण आ जाते हैं,
प्रार्थना में स्वयं को हर क्षण पाते हैं।
तो अब आप ही कहें, माय डिअर,
आपको सारे सङ्केत तो दिख रहे होंगे क्लियर।
जब ऐसा हो निराला संस्थान,
तो कोई कितना करे उसकी महानता का बखान।
स्वास्थय व प्रेम का वास्ता,
मैच्युरिटी और भगवान में आस्था,
यह आईआईएम इन सब का परम उदाहरण है,
मेरे यहां आने का, डार्लिंग, बस यही कारण है।
फिर फ़ोन पर एक ख़ामोशी छायी,
कुछ समय के लिए कोई आवाज़ नहीं आयी,
फिर इसके पहले कि हम कुछ कह पाते,
कन्या से उसका नाम पता ही जान पाते,
उसने फ़ोन पटक दिया,
हमारे दोस्ती में बढ़ते हाथ को झटक दिया।
खैर, हमने अपनी नज़र घुमाई,
अभी भी थी भरी दुपहरी छायी,
और लेटे-लेटे उसी बिस्तर पर,
फिर सो गए अपनी पलकें बन्द कर।
Tuesday, April 14, 2020
तालाबंदी (लॉकडाउन)
Thursday, March 19, 2020
निर्माण गुणगान
Thursday, August 15, 2013
Remember this day
For our glorious history
For our torturous past
For the promise of future
For our legacy vast
Remember this day
For our rivers mighty
For our mountains immense
For our bountiful soil
For our forests dense
Remember this day
For our vibrant culture
For our religions unique
For our philosophy
For our spiritual mystique
Remember this day
For our mathematics
For inventions and discoveries
For our technology
For our great universities
Remember this day
For our languages aplenty
For our literature divine
For our music and dances
For our cuisines fine
Remember this day
For the lives that were lost
For the sacrifices made
to protect what we cherish
For the prices we paid
Remember this day
For like this it was not
Remember this day
For the battles we fought
Remember this day
Not because India was born today;
She has lived a long life.
For we won what was rightfully ours
after centuries of struggle and strife
Remember this day
Not for mere independence,
but for our legacy and duty
For the responsibilities we shoulder
For our love for our country
Jai Hind!
Tuesday, July 23, 2013
जन्म दिन
गालों को सहलाया था
Monday, April 22, 2013
सत्यमेव जयते (Satyamev Jayate)
Monday, August 15, 2011
Bharat Mata
Wednesday, July 28, 2010
Moment
beads of sweat begin to show,
the heart beats faster with every breath
exhorting the limbs to fight the flow.
The sky bright and the shining sun,
clouds embellished at the horizon,
the chirping birds, the dancing trees
by a watery gloom were overrun.
The feet moved at a frenetic pace,
the arms extended wanting to raise,
the eyes open wide to catch glimpses of life
as the colour runs off the face.
And as the breath turns into a gasp,
the fists close tight in a bid to grasp,
the thread breaks and the ties are snapped,
from the lap of Life into Death's clasp.